प्रजा नहीं, नागरिक बनिए: मुफ्तखोरी से आगे बढ़िए



"प्रजा" और "नागरिक" -- ये दो शब्द दिखने में समान लग सकते हैं, लेकिन इनका अर्थ, भूमिका और सोच में गहरा अंतर है। एक लोकतंत्र में यह समझना जरूरी है कि हम प्रजा नहीं, बल्कि जागरूक नागरिक हैं।

1. प्रजा (Praja):

अर्थ: प्रजा उस समूह को कहते हैं जो शासक के अधीन होता है और उससे सहायता या संरक्षण की अपेक्षा करता है।

प्राचीन संदर्भ: यह शब्द राजतंत्र (monarchy) में प्रचलित था, जहाँ राजा सर्वोच्च होता था और आम लोग उसकी कृपा पर निर्भर रहते थे।

मुख्य विशेषताएँ:

  • अपने संवैधानिक अधिकारों की जानकारी का अभाव
  • राज्यतंत्र और सामाजिक कर्तव्यों के प्रति उदासीन
  • राज्यतंत्र की मदद और दया पर अत्यधिक निर्भर

2. नागरिक (Nagrik):

अर्थ: नागरिक वह व्यक्ति है जो राष्ट्र का सक्रिय और जिम्मेदार हिस्सा होता है, जो अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों को भी जानता और निभाता है।

आधुनिक संदर्भ: यह शब्द लोकतंत्र से जुड़ा है, जहाँ हर व्यक्ति संविधान के तहत समान अधिकार और कर्तव्यों का भागीदार होता है।

मुख्य विशेषताएँ:

  • जिम्मेदारी समझने वाला
  • आत्मनिर्भर, राष्ट्र निर्माण में योगदान देने वाला
  • मुफ्त की अपेक्षा नहीं, बल्कि अवसर और सशक्तिकरण की चाह

मुख्य अंतर तालिका:

पहलू प्रजा नागरिक
शासन व्यवस्था राजतंत्र लोकतंत्र
मानसिकता निर्भर, कृतज्ञ स्वतंत्र, उत्तरदायी
भूमिका आदेश मानने वाला निर्णय लेने और देश निर्माण में भागीदार
अपेक्षा मुफ्त योजनाएं, दया अधिकार, अवसर और जवाबदेही
दिशा ऊपर से नीचे (Top-down) नीचे से ऊपर (Bottom-up)

"प्रजा" वह होती है जो शासक पर निर्भर होती है, जो राज्य से सहायता की अपेक्षा करती है, लेकिन अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजग नहीं होती।

"नागरिक" वह होता है जो सक्षम, जागरूक और जिम्मेदार होता है। वह केवल लेने वाला नहीं, बल्कि देश के विकास में योगदान देने वाला होता है।

मुफ्त योजनाओं से राजकोषीय ज़िम्मेदारी तक

आज़ादी के बाद से भारत में जनकल्याण की भावना से प्रेरित होकर कई मुफ्त योजनाएं शुरू की गईं। इनका उद्देश्य था -- गरीबों को राहत देना, असमानता कम करना, और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना।

लेकिन समय के साथ ये योजनाएं नीति की ज़रूरत से ज़्यादा, राजनीतिक मजबूरी बनती चली गईं।

हर मुफ्त सुविधा की एक कीमत होती है -- जो या तो राष्ट्र के प्रति कर्तव्यनिष्ठ नागरिक चुका रहा है, या फिर अगली पीढ़ी चुकाएगी।

सवाल जो हम सभी को खुद से पूछना चाहिए:

क्या यह सहायता है -- या सिर्फ वोट बैंक की राजनीति?

लाखों लोग हर महीने ₹1000+ पान, बीड़ी, गुटखा पर खर्च कर सकते हैं -- लेकिन वही लोग सरकार से मुफ्त राशन, मुफ्त बिजली, मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं भी लेते हैं।

तो क्या यह वास्तविक ज़रुरत है या है -- या निर्भरता की आदत ?

अन्य योजनाओं में भी हो रही धांधलियां

🍚 1. सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) / राशन वितरण:
  • फर्जी राशन कार्ड बनवाकर दोहरी सुविधा ली जा रही है।
  • "भूतिया लाभार्थी" -- नाम तो कार्ड में है, व्यक्ति है ही नहीं।
  • डीलर कालाबाज़ारी करते हैं -- लाभार्थी को अधूरा राशन मिलता है, बाकी बाज़ार में बिकता है।
  • कुछ को तो यह तक पता नहीं कि उनके नाम से राशन निकाला जा रहा है।
🚽 2. शौचालय निर्माण योजना (SBM):
  • "भूतिया लाभार्थी" -- योजना का लाभ दिया गया, पर व्यक्ति है ही नहीं
  • पहले से बने शौचालय की फोटो भेजकर पैसे लिए गये|
  • कई बार शौचालय सिर्फ कागज़ों में बना -- जमीन पर कुछ नहीं।
  • अधूरा निर्माण या केवल दिखावा -- बिचौलियों को कमीशन देकर पास करवाना आम है।
🏠 3. प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY):
  • "भूतिया लाभार्थी" -- योजना का लाभ दिया गया, पर व्यक्ति है ही नहीं
  • पक्के घर वालों को भी लाभ, सिर्फ झूठे दस्तावेज़ों के ज़रिए।
  • एक व्यक्ति के नाम पर दो बार अनुदान।
  • मकान अधूरा, या पुराने मकान को नया दिखाकर अनुदान हड़पना।
🪔 4. उज्ज्वला योजना (LPG कनेक्शन):
  • "भूतिया लाभार्थी" -- योजना का लाभ दिया गया, पर व्यक्ति है ही नहीं
  • बहुत से लाभार्थियों ने सिर्फ एक बार सिलेंडर भरवाया -- फिर महंगाई के चलते दोबारा नहीं।
  • एक ही परिवार में दो कनेक्शन, जरूरतमंद बाहर।
  • प्रयोग की बजाय प्रतीक बनकर रह गई योजना।
👷 5. मनरेगा (MGNREGA):
  • "भूतिया मज़दूर" -- नाम कार्ड में, काम पर कोई नहीं।
  • एक व्यक्ति को दो जगह मजदूरी दिखाकर भुगतान।
  • पंचायत स्तर पर भारी गड़बड़ियां -- काम हुए बिना भुगतान।

आज के भारत को प्रजा नहीं, नागरिकों की जरूरत है -- ऐसे नागरिक जो अपने देश के लिए सोचें, काम करें और लोकतंत्र को मजबूत करें।

मुफ्त की हर सुविधा की एक कीमत होती है। यह भ्रम पालना कि कोई चीज़ "मुफ्त" है -- सबसे महंगा आर्थिक धोखा है।

हर मुफ्त योजना की कीमत या तो: वर्तमान करदाता चुका रहा है, या फिर अगली पीढ़ी को ऋण, मुद्रास्फीति और सीमित संसाधनों के रूप में चुकानी पड़ेगी।

अब समय आ गया है कि हम लोकलुभावनवाद और सतत विकास के बीच एक ज़िम्मेदार संतुलन बनाए। "प्रजा नहीं, नागरिक बने"

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