ट्रोल्स का सच: जनता की आवाज़ या सत्ताधारियों की ढाल

आज सोशल मीडिया सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि वैचारिक युद्ध का मैदान बन चुका है। हर विचार, हर पोस्ट पर कोई न कोई प्रतिक्रिया आती है --- लेकिन जब ये प्रतिक्रियाएं साजिशन, संगठित और आक्रामक हो जाएं, तब वे 'ट्रोलिंग' कहलाती हैं। क्या ये सिर्फ एक भीड़ का ग़ुस्सा है या किसी एजेंडे की बिसात?

ट्रोल आर्मी क्या है?

  • इंटरनेट पर संगठित समूह जो खास विचारधारा या व्यक्ति के विरोधियों पर हमला करता है।
  • राजनीतिक, सामाजिक या धार्मिक मुद्दों पर एकपक्षीय समर्थन और विरोध।
  • अकसर फर्जी प्रोफाइल से संचालित और ट्रेंड चलाने में माहिर।

डिजिटल आतंकवाद की परिभाषा?

  • जब विचार की आज़ादी को डर, धमकी, गाली-गलौज और दुष्प्रचार से दबाया जाता है।
  • पत्रकारों, एक्टिविस्टों, कलाकारों और आम नागरिकों को चुप कराने की कोशिश।
  • सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर "Organized Hate Campaigns"।

क्या यह सचमुच जनआक्रोश है?

  • कुछ लोग मानते हैं कि यह जनता की भावनाओं की अभिव्यक्ति है।
  • कई बार सिस्टम से उपजे आक्रोश का यह नतीजा होता है।
  • लोकतंत्र में असहमति स्वाभाविक है --- लेकिन उसकी अभिव्यक्ति मर्यादा में होनी चाहिए।

सोशल मीडिया कंपनियों की भूमिका:

  • क्या प्लेटफ़ॉर्म्स इस ट्रोलिंग को रोकने में विफल रहे हैं?
  • एल्गोरिद्म नफरत को बढ़ावा देते हैं क्योंकि वो engagement बढ़ाते हैं।

समाज पर प्रभाव:

  • युवा पीढ़ी में असहिष्णुता और कट्टरता की बढ़ती प्रवृत्ति।
  • रचनात्मकता और स्वस्थ बहस का गला घोंटना।
  • आत्म-सेंसरशिप और भय का माहौल।

न्याय और नियंत्रण की जरूरत:

  • साइबर लॉ को मज़बूत करना।
  • ट्रोल फैक्ट्रीज़ पर कार्रवाई।
  • डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देना।
✅ ट्रोल आर्मी को केवल भीड़ का गुस्सा कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। यह कभी-कभी एक संगठित प्रयास होता है --- असहमति को डराने का। लेकिन हर तीखी प्रतिक्रिया ट्रोलिंग नहीं होती। इसलिए ज़रूरत है विवेक की, अभिव्यक्ति की मर्यादा की, और डिजिटल जिम्मेदारी की।

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