बेरोज़गारी, आर्थिक संकुचन और सरकारी दावों का यथार्थवादी विश्लेषण
भारत की आर्थिक स्थिति पर सरकार के "सब चंगा सी" के दावे और ज़मीनी हकीकत के बीच एक गहरा अंतर दिखाई देता है। बेरोज़गारी, आर्थिक संकुचन और सामाजिक असमानता जैसी समस्याएँ न केवल अर्थव्यवस्था को कमजोर कर रही हैं, बल्कि देश के सामाजिक ताने-बाने को भी प्रभावित कर रही हैं। आइए, इस स्थिति का गहराई से विश्लेषण करें और सरकारी दावों के पीछे की वास्तविकता को समझने का प्रयास करें।
1. बेरोज़गारी और आर्थिक संकुचन का दुष्चक्र
बेरोज़गारी किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए एक जटिल और खतरनाक समस्या है, जो एक दुष्चक्र (vicious cycle) को जन्म देती है। यह चक्र निम्नलिखित तरीके से काम करता है:
यह चक्र न केवल आर्थिक संकुचन की प्रक्रिया को बढ़ावा देता है, बल्कि सामाजिक व्यवस्था को भी गहराई से प्रभावित करता है। यह चक्र धीरे-धीरे पूरी अर्थव्यवस्था को कमजोर कर देता है। यह न केवल जेब पर असर डालता है, बल्कि समाज में तनाव, गरीबी, असमानता, और असंतोष को भी जन्म देता है।
"इस चक्र का नीचे विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।"
1.1 आर्थिक संकुचन का अर्थ
आर्थिक संकुचन का अर्थ है किसी देश या क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का सिकुड़ना, जिसमें आर्थिक गतिविधियों जैसे खरीदारी, व्यापार, उत्पादन और रोजगार में निरंतर गिरावट देखी जाती है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब बाज़ार में माँग घटती है और उपभोग और निवेश में कमी आती है。
1.2 आर्थिक संकुचन के लक्षणों के बावजूद सरकार का दावा: आर्थिक उछाल या आंकड़ों का खेल?
रिकॉर्ड टैक्स कलेक्शन
मोदी सरकार बार-बार दावा करती है कि भारत की अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है। इसके पीछे उनके कुछ प्रमुख तर्क हैं:
2. बजट आवंटन: प्राथमिकताएँ कहाँ हैं?
क्षेत्र | बजट आवंटन (GDP का %) | वास्तविक स्थिति |
---|---|---|
शिक्षा | 2.9% | NEP 2020 का लक्ष्य 6% था, लेकिन अभी भी कम निवेश |
स्वास्थ्य | 1.6% | OECD देशों में औसतन 8-10%, भारत बहुत पीछे |
महिला एवं बाल विकास | 0.7% | सामाजिक सुरक्षा पर खर्च नगण्य |
पर्यावरण (Environment) | 0.1% | पर्यावरणीय सुधारों पर नगण्य असर |
रक्षा | 2.04% | पाकिस्तान (4% GDP) से तुलना में कम |
2.1 जमीनी सच्चाई: रिकॉर्ड राजस्व के बावजूद बढ़ती समस्याएँ
हालांकि सरकार रिकॉर्ड आर्थिक अर्जन" का दावा कर रही है, लेकिन जमीनी स्तर पर स्थिति कुछ और ही संकेत देती है। मोदी सरकार द्वारा इतने ऐतिहासिक आर्थिक संग्रहण के बावजूद, लाखों सरकारी नौकरियाँ वर्षों से रिक्त पड़ी हैं। देश में बेरोज़गारी, किसानों की आत्महत्याएँ, कृषि आय में गिरावट, फसल लागत में वृद्धि, बुनियादी ग्रामीण सुविधाओं की कमी से पैदा हो रहा गहराता ग्रामीण संकट, और सामाजिक असंतोष जैसे गंभीर मुद्दे लगातार बढ़ रहे हैं। इसके अलावा, श्रमिकों के वेतन में ठहराव, महँगाई का दबाव, निजीकरण से बढ़ती नौकरी की असुरक्षा, और शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं की लागत में तेज़ वृद्धि जैसी समस्याएँ भी आम लोगों की परेशानियाँ बढ़ा रही हैं।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि जिन क्षेत्रों में लंबी अवधि में निवेश सबसे जरूरी है, वहाँ बजट आवंटन बहुत कम है।
2.2 क्या विकास की जहाँ - तहां दिख रही चमक केवल कर्ज़, सार्वजनिक संपत्तियों की बिक्री और अप्रत्यक्ष करों से खड़ा किया जा रहा काँच का महल है?
कैसे बनाए जा रहे हैं "रिकॉर्ड राजस्व" के आंकड़े: मोदी सरकार द्वारा जुटाए गए फंड (2014--2024)
3. "विकास" या आर्थिक संकट? सरकारी आंकड़ों की पोल खोलती हकीकत
सरकार भले ही "विकास" का ढोल पीट रही है, लेकिन जमीनी हकीकत आर्थिक संकुचन और गहराते संकट की गवाही दे रही है। सवाल यह है कि क्या ये शानदार आंकड़े वास्तव में ठोस आधार रखते हैं , या फिर सरकार वर्तमान व आने वाली पीढ़ी के भविष्य को गिरवी रखकर लिए जा रहे कर्ज़, सार्वजनिक संपत्तियों की बिक्री करके और आम जनता की जेब काटकर जुटाए गए अप्रत्यक्ष करों के जरिए सच्चाई को छुपाने की कोशिश कर रही है?
4. निष्कर्ष
मोदी सरकार के आर्थिक आंकड़े भले ही चमकदार दिखें, लेकिन बेरोज़गारी, सामाजिक असमानता, और ग्रामीण संकट की सच्चाई इन दावों की पोल खोलती है, क्योंकि अर्थव्यवस्था की असली ताकत आंकड़ों में नहीं, बल्कि आम लोगों की जेब, उनकी जीवन शैली और उनके जीवन स्तर में दिखती है - जब तक शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोज़गार जैसे बुनियादी क्षेत्रों में निवेश नहीं बढ़ता, तब तक विकास की बातें सिर्फ एक भ्रम रहेगी।
लेखक का मानना है कि सिर्फ आर्थिक दोहन और विदेशी कर्ज के सहारे अर्थव्यवस्था मजबूत होने का दावा करना एक दिखावटी सफलता व खोखला दावा है।
क्या सच में -- 'सब चंगा सी'?
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