क्या सच में 'सब चंगा सी'?


बेरोज़गारी, आर्थिक संकुचन और सरकारी दावों का यथार्थवादी विश्लेषण

भारत की आर्थिक स्थिति को लेकर सरकार का "सब चंगा सी" का दावा और ज़मीनी हकीकत के बीच गहरा अंतर दिखाई देता है। बेरोज़गारी और आर्थिक संकुचन जैसे मुद्दे न केवल अर्थव्यवस्था को कमजोर कर रहे हैं, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी प्रभावित कर रहे हैं। आइए, इस स्थिति का गहराई से विश्लेषण करें और कुछ तथ्यों, आंकड़ों, और संभावित समाधानों पर नज़र डालें।

बेरोज़गारी और आर्थिक संकुचन का चक्र

बेरोज़गारी किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए एक जटिल और खतरनाक समस्या है, जो एक दुष्चक्र (vicious cycle) को जन्म देती है। यह चक्र निम्नलिखित तरीके से काम करता है:

  • नौकरियों की कमी: बढ़ती जनसंख्या और सीमित रोज़गार सृजन के कारण बेरोज़गारी बढ़ती है।
  • क्रय शक्ति में कमी: बेरोज़गार लोग कम खर्च करते हैं, जिससे बाज़ार में मांग घटती है।
  • उत्पादन और निवेश में कमी: मांग घटने से कंपनियाँ उत्पादन और विस्तार में कटौती करती हैं, जिससे निवेश कम होता है।
  • नौकरियों में और कमी: कम निवेश और उत्पादन से और नौकरियाँ खत्म होती हैं, जिससे बेरोज़गारी का चक्र गहरा होता है।
  • सामाजिक प्रभाव: यह चक्र गरीबी, असमानता, और सामाजिक असंतोष को बढ़ाता है, जिससे अपराध दर और मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ भी बढ़ती हैं।

यह चक्र न केवल आर्थिक विकास को बाधित करता है, बल्कि सामाजिक स्थिरता को भी खतरे में डालता है। यह चक्र धीरे-धीरे पूरी अर्थव्यवस्था को कमजोर कर देता है। यह न केवल जेब पर असर डालता है, बल्कि समाज में तनाव, गरीबी, असमानता, और असंतोष को भी जन्म देता है।

सरकार का दावा: आर्थिक उछाल या आंकड़ों का खेल?

रिकॉर्ड टैक्स कलेक्शन

मोदी सरकार बार-बार दावा करती है कि भारत की अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है। इसके पीछे उनके कुछ प्रमुख तर्क हैं:

  • GST कलेक्शन में ऐतिहासिक वृद्धि हो रही है।
  • इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
  • कॉरपोरेट टैक्स वसूली में उल्लेखनीय सुधार हुआ है।

अन्य प्रमुख स्रोत जहाँ से सरकार अधिकतम फंड जुटा रही है

मोदी सरकार ने विभिन्न तरीकों से भारी मात्रा में फंड जुटाए हैं, जो इस प्रकार हैं:

  • वर्ल्ड बैंक से ऋण: अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से कर्ज लेकर राजस्व बढ़ाना।
  • प्राइवेटाइजेशन: सार्वजनिक उपक्रमों के शेयर बेचकर और परिसंपत्तियों को निजी हाथों में देना।
  • पेट्रोल-डीजल पर कर: उच्च उत्पादन शुल्क और सेस के जरिए भारी राजस्व।
  • विशेष सरकारी बांड: इंफ्रास्ट्रक्चर बांड और सॉवरेन गोल्ड बांड से पूंजी जुटाना।
  • डिजिटल ट्रांजैक्शन और GST विस्तार: टैक्स बेस बढ़ाकर राजस्व में वृद्धि।
  • सार्वजनिक परिसंपत्तियों का मोनेटाइजेशन: रेलवे, हवाई अड्डों, और नेशनल मॉनेटाइजेशन पाइपलाइन (NMP) के जरिए फंडिंग।
  • LIC IPO और इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट: आम जनता और निजी निवेशकों से धन जुटाना।
  • नए कर और सेस: कृषि सेस, स्वास्थ्य सेस, और शराब-तंबाकू पर अतिरिक्त कर।
  • नए नोट छापना: मौद्रिक नीतियों के जरिए पूंजी बढ़ाना।

असली सवाल: आर्थिक दोहन या सामाजिक विकास?

इतने भारी राजस्व संग्रहण के बावजूद, भारत के बजट आवंटन की तस्वीर कुछ और ही कहानी बयां करती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला-बाल विकास, और पर्यावरण जैसे बुनियादी क्षेत्रों में निवेश बेहद कम है।

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क्षेत्र भारत का बजट आवंटन (% GDP) अमेरिका का बजट आवंटन (% GDP) वर्तमान स्थिति
शिक्षा 2.53% ~6% अपर्याप्त निवेश, रोजगार सृजन पर सीमित प्रभाव
स्वास्थ्य 1.94% ~18% अपर्याप्त निवेश, जन स्वास्थ्य पर सीमित प्रभाव
महिला एवं बाल विकास 0.68% ~4% सामाजिक विकास पर सीमित प्रभाव
पर्यावरण 0.012% ~1% पर्यावरणीय सुधारों पर नगण्य असर
रक्षा 1.89% ~3.5% रक्षा क्षेत्र में खर्च मौजूदा आवश्यकताओं की तुलना में अपर्याप्त

महत्वपूर्ण तथ्य:

  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 में शिक्षा पर 6% GDP खर्च का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन भारत अभी भी 2.53% पर अटका है।
  • स्वास्थ्य पर भारत का खर्च OECD देशों (औसतन 8-10% GDP) से बहुत कम है।
  • रक्षा बजट आधुनिकीकरण की ज़रूरतों के सामने अपर्याप्त है।

जमीनी सच्चाई: आर्थिक संग्रहण के बावजूद बढ़ती समस्याएँ

हालांकि सरकार टैक्स और फंडिंग के रिकॉर्ड का दावा कर रही है, लेकिन जमीनी स्तर पर स्थिति कुछ और ही संकेत देती है। मोदी सरकार द्वारा इतने आर्थिक संग्रहण के बावजूद, देश में युवा बेरोज़गारी, किसानों की आत्महत्याएँ, ग्रामीण संकट, और सामाजिक असंतोष जैसे गंभीर मुद्दे लगातार बढ़ रहे हैं।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि जिन क्षेत्रों में लंबी अवधि में निवेश सबसे जरूरी है, वहाँ बजट आवंटन बहुत कम है।

सरकारी दावों के पीछे की दो संभावित सच्चाइयाँ

सरकार कहती है कि सब ठीक है, लेकिन स्थितियाँ दो संभावित कारणों की ओर इशारा करती हैं:

  • आंकड़ों का भ्रामक खेल: सरकार के टैक्स कलेक्शन और वित्तीय  आंकड़े भले ही प्रभावशाली दिखें, लेकिन ये ज़मीनी समस्याओं को छिपाने का एक प्रयास हो सकते हैं। "सब चंगा सी" का नैरेटिव वास्तविकता से दूर हो सकता है।
  • आर्थिक रक्तस्राव: सरकार भले ही फंड जुटा रही हो, लेकिन गलत नीतियाँ, भ्रष्टाचार, और सामाजिक क्षेत्रों में अपर्याप्त निवेश के कारण अर्थव्यवस्था अंदर से खोखली हो रही है।

निष्कर्ष

 मोदी सरकार के आर्थिक आंकड़े भले ही चमकदार दिखें, लेकिन बेरोज़गारी, सामाजिक असमानता, और ग्रामीण संकट की सच्चाई इन दावों को इन दावों की पोल खोलती है।, क्योंकि अर्थव्यवस्था की असली ताकत आंकड़ों में नही , बल्कि आम लोगों की जेब, उनकी जीवन शैली और उनके जीवन स्तर में दिखती है - जब तक शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोज़गार जैसे बुनियादी क्षेत्रों में निवेश नहीं बढ़ता, तब तक विकास की बाते सिर्फ एक भ्रम रहेगी , सिर्फ आर्थिक दोहन और विदेशी कर्ज के सहारे अर्थव्यवस्था मजबूत होने का दावा करना दरअसल एक दिखावटी सफलता  व खोखला दावा  है।

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